गौवंशीय पशुओं में एक टगिया रोग, (चुरका, लंगडा रोग, काला बुखार): प्रसारण, लक्षण तथा रोकथाम
रोग कारक: यह एक संक्रामक जीवाणु जनित रोग है। जो कि क्लोइट्रिडियम सौवी नामक जीवाणु से होता है। जो कि ग्राम पॉज़िटिव, वाला जीवाणु है। यह जीवाणु मिटटी में कई सालों तक जीवित रहता है।
प्रसारण – वह रोग मुख्यतः गौवंश भैंस और भेड़ में होता है। कभी-कभी घोड़ों में भी यह विमारी देखी जाती है। यह रोग मुख्यतः वर्षा ऋतु मे होती है। गौवंश में यह रोग अधिकांशत गर्मियों में होती है। 6 साल से 2 साल के पशु मे ज्यादा होता है।
(1) यह मिटटी द्वारा फैलने वाला रोग है। रोग के जीवाणु संक्रमित पशु के मल द्वारा या संक्रमित पशु के मृत्यु होने पर इसके शव द्वारा मिटटी में फैल जाते है। जहाँ से ये जीवाणु स्वस्थ पशु को संक्रमित करते है।
(2) सक्रंमित खादय पदार्थो के द्वारा।
(3) भेड़ो में यह रोग त्वचा के सावों के संक्रमण से होता है।
रोग के लक्षण – इस रोग का काल सामान्यतः 1 से 5 दिनो का होता है। इस रोग को निम्नलिखित लक्षणों के आधार पर पहचान जा सकता है।
(1) इस रोग का प्रथम लक्षण है कि पशु अचानक लॅगड़ाने लगता है। और इसकी चाल में अकड़न आ जाती है।
(2) प्रभावित पैंरो के उपरी हिस्से को दबाने पर चुर-चुर जैसे घ्वनि सुनाई देती है। सूजन के ऊपर त्वचा रोग हल्का पड़ जाता है। और सुखी औश्र दायर होती है।
(3) भूख कम हो जाना।
(4) जुगाली बंद कर देना है।
(5) उच्च तापमान (104-107 डिग्री फारनेहाइड) तक हो सकता है।
(6) रोगी पशु की उत्पादन क्षमता कम हो जाती है।
उपचार – समय पर रोग की पहचान कर रोग का इलाज किया जा सकता है। इसके लिए निम्न प्रकार से उपचार किया जा सकता है।
-3 से 5 दिनों तक प्रतिजैविक औषधियों की उचित मात्रा देना चाहिए ।
-आक्सीटेट्रासाइलिन -5-10 मिसा/कि.शरीर के भार भारानुसार
– डेक्सामेथासोन -05.2 मि.गा्र./कि.भारानुसार नस में
-साथ ही सम्बधित मांसपेशी मे भरा हुआ तरह पदार्थ या स्वरात हो चुका भाग को बाहर निकाल दिया जाना चाहिए।
-रोगी पशु को आवश्यकतानुसार लक्षणात्मक और सहारात्मक उपचार भी करना चाहिए।
रोकथाम व बचाव – क्योकि यह एक संक्रामक रोग है। अतः रोगी पशु को अन्य स्वस्थ पशुओं से दूर रखना चाहिए। पशुशाला मे साफ-सफाई रखना चाहिए। स्वस्थ पशु को सक्रंमित भूमि और चारागाह से दूर रखना चाहिए। रोगी जनवार की मृत्यु होने पर शव को भली- भांति जमीन में गहरा गाड़ देना चाहिए। और उस पर चूने का छिडकाव कर देना चाहिए। इस रोग की रोकथाम के लिए वर्षा ऋतु शुरू होने के पूर्व स्वस्थ पशु को टीका प्रतिवर्ष लगाना चाहिए।